Tuesday, September 21, 2010

मेरे दर्द को अपना कर लो .......


जीवन की तपती दोपहर को
अपने प्‍यार की छाया देकर
मेरे दर्द को अपना कर लो।

जीवन की राह कठिन है
जलती रेत पर चलना मुश्किल
तुम छालों की इस जलन को
चंदन की शीतलता दे दो,
मेरे दर्द को अपना कर लो।

मन में क्रन्‍दन चल रहा प्रतिदिन
पल-पल प्रतिकूल होता प्रतिदिन
तुम अंतर्मन के इस पतझड़ को
सावन की हरियाली कर दो,
मेरे दर्द को अपना कर लो।

अंतर्मन में अंतर्द्वन्‍द्वों का
चल रहा भीषण समर
तुम जीवन के इस महासमर को
कृष्ण-सा सारथी दे दो,
मेरे दर्द को अपना कर लो।

यह पड़ाव मंजि़ल नहीं है
लक्ष्‍‍य हुआ ऑंखों से ओझल
तुम अमावस के इस तिमिर को
पूनम का उजियारा कर दो,
मेरे दर्द को अपना कर लो।

बेसुरे हैं तार जीवन के
साज भी है कुछ टूटा-फूटा
तुम जीवन के इस सितार को
अपने सुरों से सुरभित कर दो,
मेरे दर्द को अपना कर लो।
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सुनील आर. करमेले, इन्दौर




Thursday, January 1, 2009

नया वर्ष नयी उम्मीदें

 
                       
आज फि‍र जीवन

हर पुराने सालों की तरह

एक साल और

पुराना हो गया।


पुराने साल को

खूँटी पर टाँग

नये साल को

नई कमीज़ की तरह

पहन लि‍या है।


दूर बैठकर देखता हूँ

खूँटी पर टँगी

कमीज़ की तरह

पुराने साल को

जि‍सके कुछ बटन

टूटे हुए हैं

आपसी भाईचारे के

सि‍लाई खुल गई है

दि‍लों के बीच की

और जगह जगह पर

दाग़ और गहरे हो गये हैं

ख़ून के।


नये साल की नई कमीज़ में

रंग बि‍रंगे बटन लगे हुए हैं

उम्‍मीदों के,

नएपन की खुशबू है,

जे़ब भी कुछ बडा है

नये खूबसूरत सपनों के लि‍ए।


यह पुरानी कमीज़ की तरह

आधी आस्‍ति‍न वाली नहीं है,

दुनि‍या भर की उम्‍मीदों के लि‍ए

पूरी आस्‍ति‍न वाली है।


आज नए साल की

नई कमीज़ को पहन

इठलाते हुए घूम रहा हूँ

नई उम्‍मीदों के साथ।

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Tuesday, November 4, 2008

दंगे


दंगे



दावानल की तरह

होते हैं

दंगे

जला डालते हैं

भाईचारा, एकता और

राष्‍ट्रधर्म

बॉंट देते हैं

एक को

अनेक ख़ानों में

और

छोड़ जाते हैं

जली हुई

मानवता की

राख ।

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04/11/1996

Monday, October 27, 2008

शुभ दीपावली


आप सभी लोगों को दीपावली की अनन्‍त हार्दिक शुभकामनाऍं

Monday, October 13, 2008

कि‍सी दि‍न

आज का दि‍न भी
ढल गया
फि‍र रात
गहराने लगी है
इसके बाद सुबह होगी
वह भी धीरे-धीरे
दोपहर, शाम और रात में
बदल जाएगी
इसी तरह
दि‍न पर दि‍न
कैलेण्‍डर पर तारीखें
बदलती रहेंगी
इन्‍हीं में से
कोई एक
मेरी अंति‍म तारीख होगी
और दीवार पर मैं
एक तस्‍वीर बनकर
टंग जाऊँगा
आगे की
सभी तारीखों के लि‍ए।
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Wednesday, October 1, 2008

ईद मुबारक़


ईद मुबारक़


हर सि‍म्‍त से आती सदा - ईद मुबारक
चलती हुई कहती हवा - ईद मुबारक।

मंदि‍र के कलश ने कहा हँसकर मीनार से
कौन करे हमको ज़ुदा - ईद मुबारक।

आज सुबह आरती अजान से मि‍ली
परमात्‍मा कहता है ख़ुदा से - ईद मुबारक।

रमजान की पाकीज़गी नवरात्रि‍ से कम नही
लीजि‍ए नवरात्रि‍ की दुआ - ईद मुबारक।

दीपावली पे खान ने दी मुझको बधाई
हमने गले लगकर कहा - ईद मुबारक।


यह रचना श्री मोहन सोनी जी की है, जि‍से कि‍ कुछ बदलाव कर आपके लि‍ए प्रस्‍तुत कर रहा हूँ। यदि‍ मोहन जी इसे देखें तो उनकी बि‍ना इज़ाजत यहॉं प्रस्‍तुत करने के लि‍ए वे मुझे क्षमा करेंगे।
छायाचि‍त्र - गुगल साभार

Friday, September 26, 2008

प्‍यास......


वह कवि‍ है


अपने उत्‍पीड़न,


अपने अन्‍तरद्वंद्वों को


शब्‍दों में ढाल दुनि‍यॉं तक


पहुँचाने की चाह लि‍ए


कवि‍ताऍं लि‍खता है।


आज उसकी प्‍यास बुझ गई है


देर सबेर ही सही


आज उसकी कि‍ताब छप गई है


लेकि‍न क्‍या बुझ सकती है प्‍यास


वह अनन्‍त की ओर


और नहीं भड़क उठी होगी


उसने फि‍र से


नवीन सृजन के लि‍ए


उठा ली होगी क़लम


क्‍योंकि‍ शब्‍दों के साथ लड़ाइयॉं


कभी ख़त्‍म नहीं होती


बस कभी-कभी


धीमी हो जाया करती हैं।


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यह कवि‍ता मैंने उस समय लि‍खी थी, जब 1996 में मेरे बड़े भाई श्री अनि‍ल करमेले का कवि‍ता संग्रह ''ईश्‍वर के नाम पर'' प्रकाशि‍त हुआ था। तत्‍पश्‍चात उन्‍हें इस कवि‍ता संग्रह पर 1997 में मध्‍यप्रदेश सरकार द्वारा ''दुष्‍यंत कुमार'' सम्‍मान से नवाज़ा गया था। प्रस्‍तुत है उनकी एक कवि‍ता...


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मैं रोज़ नींद में लोहे की धमक सुनता हूँ


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जेठ की घाम में
बन रही होती, मि‍ट्टी बोवाई के लि‍ए
तपे ढेले टूटते, लय में


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उसी लय में भीमा लुहार की सांसें
फड़कती, फि‍सलती हाथों की मछलि‍यॉं
भट्टी में तपते फाल की रंगत लि‍ए


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गॉंव में इकलौता लुहार था भीमा
और घर में अकेला मरद
धरती में बीज डालने के औजारों का अकेला नि‍र्माता


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गॉंव का पूरा लोहा
उतरते जेठ, रात के तीसरे पहर से ही
शुरू हो जाती, उसके घन की धमक
साथ ही तेज सांसों का हुंकारा
धम...ह:.धम...ह:.धम...ह:.धम...ह:.


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पूरा गॉंव सुनता धमक, उठता नींद से गाफि‍ल
आते आषाढ़ में वैसे भी कि‍सान को नींद कहॉं
लोग उठते और फारि‍ग हो, ले पहुँचते अपना अपना लोहा


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दहकते अंगारों से भीमा की भट्टी
खि‍लखि‍ला उठती धरती की उर्वर कोख हरि‍याने
भट्टी के लाल उजाले में
देवदूत की तरह चमकता भीमा का चेहरा
घन उठता और हज़ार घोड़ों की ताक़त से
तपते लोहे पर गि‍रता
लाल कि‍रचि‍यॉं बि‍खरतीं टूटते तारों की मानिंद
गि‍रते पसीने से छन-छन करता पकता
लोहा


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भीमा घन चलाता
उसकी पत्‍नी पकड़ती संड़सी से लोहे का फाल
घन गि‍रता और पत्‍नी के स्‍तन
धरती की तरह कांप जाते
जैसे बीजों के लि‍ए उनमें भी उतरता दूध


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लगते आषाढ़
जि‍तनी भीड़ खेतों में होती
उतनी ही भीमा की भट्टी पर
धौकनी चलती, तपता लोहा, बनते फाल
कुआंरी धरती पर पहली बारि‍श में
बीज उतरते करते फालों को सलाम


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भीमा की तड़कती देह
फि‍र अगहन की तैयारी में जुटती
बरस भर लोहा उतरता उसके भीतर
बि‍न लोहा अन्‍न और बि‍न भीमा लोहा
अब भी संभव नहीं है।
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छायाचि‍त्र : गुगल साभार