यह कविता 6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी मस्जि़द को गिराये जाने के बाद उत्पन्न हुई दारूण स्थिति के व्यथित होकर लिखी गई है। यह कविता अगस्त, 1997 को मुम्बई से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र जनसत्ता के साप्ताहिक परिशिष्ट 'सबरंग' में प्रकाशित हो चुकी है। आज़ की स्िथति में भी परिस्िथतियॉं उतनी ही भयावह हो जाती है एवं यह कविता लगता है कि आज़ भी उसी स्थिति को बयॉं करती है...............
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ख़ून
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ख़ून
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आज
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रगों के अंदर नहीं
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रगों से बाहर निकलकर
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बहने के लिए
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विवश है।
विवश है।
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यही उसकी
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नियति बन चुकी है
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कहीं अयोध्या,
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कहीं बम्बई,
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कहीं दिल्ली,
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तो कहीं भोपाल में
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अपना परिचय
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हिन्दू-मुस्िलम से परे
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सिर्फ़
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ख़ून होने का
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दे रहा है।
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ख़ून
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बहन की, मॉं की या पिता की
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ऑंखों से,
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जिनके लाड़लों को
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सरेआम
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क़त्ल कर दिया गया
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समाज के ठेकेदारों ने
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लेकिन
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समाचारों में
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वह सिर्फ़
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सरकारी ज़बान में
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हादसे का शिकार होता है
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ढुलक पड़ता है
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अपने अस्तित्व को
अपने अस्तित्व को
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अपने बहने की नियति में
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समेटे हुये
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छायाचित्र : गुगल साभार
5 comments:
बहुत अच्छी कविता. अनिल मुझे ख़ुशी है कि तुमने अपना ब्लॉग बना लिया. अब कुछ अच्छी रचनाएँ पढ़ने को मिला करेंगी. मुझे अपना नियमित पाठक समझो. एक बात और; समसामयिक विषयों पर जिस तरह तुम 'सबरंग' में लिखा करते थे, लिखा करो. इससे तुम्हें और तुम्हारे विचारों को गति मिलेगी. अनेकानेक शुभकामनाओं के साथ!
और हाँ, समय मिले तो कबाड़खाना ब्लॉग पर मेरा प्रस्तुत शरद जोशी पर वेणुगोपाल का संस्मरण पढ़ना. मुझे अशोक भाई ने कबाड़खाना का कबाड़ी बना लिया है. उसमें वीरेन डंगवाल और गीत जैसे कई बढ़िया लोग हैं.
bhaut achhi parstuti aapki aaj ke samaaz ki
aapne blog banaya ye jaan kar bhaut achha laga
main bhi ab rehular aati rahungi
likhte rahe
बहुत-बहुत शुक्रिया, विजय भाई एवं श्रद्धा जी को।
बहुत सुंदर भावों की सुंदर शब्द संयोजना द्वारा प्रस्तुति बधाई . मेरे ब्लॉग पर भी दस्तक दें
khoon khoon khoon...yahi shabd sarvatrev sunaayi deta hai parantu sabki aankhon ke samaksh hokar bhi dhyan nahi diya jaata logon dwara......prasannta hui jo aapne is or dhyaan aakrishta kiya.....dhanyawaad evam badhai
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