जिस प्रकार से संसार में प्रत्येक प्राणी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए अनथ्ाक प्रयास करता है एवं अपने वज़ूद को बनाये रखने के लिए बिना किसी षड़यंत्र प्रकृति से लड़ता, झगड़ता एवं कई बार समझौता भी करता है, सिवाय मनुष्य के। मनुष्य न जाने क्या क्या करता है, प्रकृति से अपने आपको बहुत बड़ा साबित करने के लिए, लेकिन प्रकृति उसे हमेशा बौना ही साबित करती रही है..बहरहाल हमने भी सोचा कि हम भी अपने वज़ूद को इस दुनिया में बनाये रखने के लिए पुन: क़लम उठा लें....। यानी विज्ञान की इस खू़बसूरत तकनीक का उपयोग करें। आज फिर से बरसों बाद अपनी अभिव्यक्ित को आकार देने की कोशिश मात्र है...। अब आप ही यह तय करेंगे कि हम कहॉं तक क़ामयाब हुए हैं, तो प्रस्तुत है आपके समक्ष यह 1994 में लिखी गई एक कविता...पुरानी ही सही...
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अस्तित्व बोध
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मैं मानव हूँ
मैं मानव नहीं हूँ
इसी उधेड़बुन में
मैं वर्षों से लगा हूँ
टटोलता हूँ
अपने आपको
पलट चुका हूँ
वे सैकड़ों पन्ने
ग्रंथों के, क़ुरान के, गीता के
जो मानव को
देवता कहने का
दम भरते हैं
पलट चुका हूँ
वे पन्ने
जो मानव सभ्यता की
उत्कर्ष की गाथा कहते
पलट चुका हूँ
इतिहास के वे पन्ने
जिनकी समरगाथा की स्याही
ख़ूनी नज़र आती
मन शान्त नहीं
अंधेरे में कोई जुगनू भी नहीं
टिमटिमता है
हर घड़ी, हर लम्हा
एक इतिहास रचता है
बर्बरता का
इस इतिहास के पन्नों की स्याही
रक्तिम स्याही अब
अपनी पंक्तियों से
बाहर बहने लगी है
कभी कभी
उतार देता हूँ सारे कपड़े
और
देखने लगता हूँ
जानवरों वाली
भतीजे की क़िताब
कोशिश करता हूँ
समझने की
कि अंतर कैसा है ?
उनमें और मुझमें।
6 comments:
swagat ....! likhte rahe
aaj aapne saabit kar diya ki aap yunhi humare dost nahi hai.keep it up.mahan kaviyo wali baat hai apme to
kavita likhne se poorv kee prakriya kavi ko jin bhaon se guzartee hai ,apkee in panktiyon mein uska jeevant aabhaas miltaa hai.manv kee apkee talaash kavitaa mein abhivyakt hui hai.
अशोक जी, आपकी प्रतिक्रिया के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। आपकी हौसला आफ़जाई से मैं जरूर कुछ दूर चल सकूंगा।
सुंदर भावाभिव्यक्ति बधाई
थोडा समय निकालें मेरे ब्लॉग पर पुन: पधारें
bhut sundar likha hai.
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