सन् 1994 में लिखी गई इस रचना में मैं उस परिदृश्य को आपके सम्मुख्ा लाने की चेष्टा कर रहा हूँ, जहॉं पर डाकुओं की परम्परायें एवं इस प्रवृत्ति के लोग आज भी मौजूद हैं। जैसे चम्बल के बीहड़ का इलाका, इटावा, झॉंसी एवं आसपास के कुछ सौ किलोमीटर का वह इलाका, जहॉं के लोग आज भी इस अमानवीय प्रवृत्ित से कुछ हद तक त्रस्त हैं....................
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डाकू आ रहे हैं
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एक लड़की
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सहमी हुई सी
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भागती है
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घोड़ों की टापों
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की आवाज़ से
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उसकी धड़कनें बढ़ जाती हैं।
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गोलियों की आवाज़
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गूँजने से पहले ही
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अपनी फटी चुनरी में
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कुँआरेपन को लपेटकर
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छुप जाती है गोबर के कण्डों में।
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याद आ जाती है उसे
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अपने पिता की मौत
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बहन की बेइज्ज़त होती आबरू।
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कुछ देर चले
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कोलाहल के बाद
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शनै: शनै:
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धोड़ों की टापों की आवाज़
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दूर होते जाती है
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फिर भी वह
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डाकुओं के भय से
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कण्डों में कण्डा बनकर
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छुप जाना चाहती है
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हमेशा के लिए
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सुलग जाना चाहती है
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कण्डों की तरह बिना आवाज़ किए
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लकड़ी की तरह
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नहीं जलना चाहती
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कुल्हाड़ी से कटने के बाद.
Monday, September 8, 2008
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11 comments:
bhaut achha likhte hain aap
sawagat hai blogging main
स्वागत है नये ब्लोग के लिये एवं सुन्दर कविता के लिये। लिखते रहें।
नए ब्लोग एवं सुन्दर कविता की बधाई । लिखते रहिए ।
सुन्दर कविता के लिए बधाई । लिखते रहिए
श्रद्धाजी एवं रचना जी को बहुत-बहुत धन्यवाद, हौसला आफ़जा़ई के लिए.........
चिट्ठे का स्वागत है. लेखन के लिए शुभकामनाएँ. खूब लिखें, अच्छा लिखें.
जीवन संवेदना का पर्याय हैं। संवेदना के अंकुरण, प्रस्फुटन एवं अभिवर्द्धन के अनुरुप ही इसका विकास होता है।
जीवन विद्या के मर्मज्ञ-नारद।
bahut khub...bahut hi samvedanshil rachana...!likhate rahe.n
बहुत सटीक लिखा है आपने हिन्दी ब्लॉग जगत में आपका हार्दिक स्वागत है निरंतरता की चाहत है समय निकाल कर मेरे ब्लॉग पर भी दस्तक दें
such mein manushya ke bheetar chhipe insaan ko jagrit karne wali kavita hai......keep goin on
such mein manushya ke bheetar chhipe insaan ko jagrit karne wali kavita hai......keep goin on
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