Friday, September 26, 2008

प्‍यास......


वह कवि‍ है


अपने उत्‍पीड़न,


अपने अन्‍तरद्वंद्वों को


शब्‍दों में ढाल दुनि‍यॉं तक


पहुँचाने की चाह लि‍ए


कवि‍ताऍं लि‍खता है।


आज उसकी प्‍यास बुझ गई है


देर सबेर ही सही


आज उसकी कि‍ताब छप गई है


लेकि‍न क्‍या बुझ सकती है प्‍यास


वह अनन्‍त की ओर


और नहीं भड़क उठी होगी


उसने फि‍र से


नवीन सृजन के लि‍ए


उठा ली होगी क़लम


क्‍योंकि‍ शब्‍दों के साथ लड़ाइयॉं


कभी ख़त्‍म नहीं होती


बस कभी-कभी


धीमी हो जाया करती हैं।


........................................
यह कवि‍ता मैंने उस समय लि‍खी थी, जब 1996 में मेरे बड़े भाई श्री अनि‍ल करमेले का कवि‍ता संग्रह ''ईश्‍वर के नाम पर'' प्रकाशि‍त हुआ था। तत्‍पश्‍चात उन्‍हें इस कवि‍ता संग्रह पर 1997 में मध्‍यप्रदेश सरकार द्वारा ''दुष्‍यंत कुमार'' सम्‍मान से नवाज़ा गया था। प्रस्‍तुत है उनकी एक कवि‍ता...


.
मैं रोज़ नींद में लोहे की धमक सुनता हूँ


.
जेठ की घाम में
बन रही होती, मि‍ट्टी बोवाई के लि‍ए
तपे ढेले टूटते, लय में


.
उसी लय में भीमा लुहार की सांसें
फड़कती, फि‍सलती हाथों की मछलि‍यॉं
भट्टी में तपते फाल की रंगत लि‍ए


.
गॉंव में इकलौता लुहार था भीमा
और घर में अकेला मरद
धरती में बीज डालने के औजारों का अकेला नि‍र्माता


.
गॉंव का पूरा लोहा
उतरते जेठ, रात के तीसरे पहर से ही
शुरू हो जाती, उसके घन की धमक
साथ ही तेज सांसों का हुंकारा
धम...ह:.धम...ह:.धम...ह:.धम...ह:.


.
पूरा गॉंव सुनता धमक, उठता नींद से गाफि‍ल
आते आषाढ़ में वैसे भी कि‍सान को नींद कहॉं
लोग उठते और फारि‍ग हो, ले पहुँचते अपना अपना लोहा


.
दहकते अंगारों से भीमा की भट्टी
खि‍लखि‍ला उठती धरती की उर्वर कोख हरि‍याने
भट्टी के लाल उजाले में
देवदूत की तरह चमकता भीमा का चेहरा
घन उठता और हज़ार घोड़ों की ताक़त से
तपते लोहे पर गि‍रता
लाल कि‍रचि‍यॉं बि‍खरतीं टूटते तारों की मानिंद
गि‍रते पसीने से छन-छन करता पकता
लोहा


.
भीमा घन चलाता
उसकी पत्‍नी पकड़ती संड़सी से लोहे का फाल
घन गि‍रता और पत्‍नी के स्‍तन
धरती की तरह कांप जाते
जैसे बीजों के लि‍ए उनमें भी उतरता दूध


.
लगते आषाढ़
जि‍तनी भीड़ खेतों में होती
उतनी ही भीमा की भट्टी पर
धौकनी चलती, तपता लोहा, बनते फाल
कुआंरी धरती पर पहली बारि‍श में
बीज उतरते करते फालों को सलाम


.
भीमा की तड़कती देह
फि‍र अगहन की तैयारी में जुटती
बरस भर लोहा उतरता उसके भीतर
बि‍न लोहा अन्‍न और बि‍न भीमा लोहा
अब भी संभव नहीं है।
......................................

छायाचि‍त्र : गुगल साभार

5 comments:

seema gupta said...

आज उसकी कि‍ताब छप गई है

लेकि‍न क्‍या बुझ सकती है प्‍यास

" beautiful expresion, i liked reading both the poems, great job"

Regards

Suneel R. Karmele said...

धन्‍यवाद सीमा जी। हौसला आफजाई के लि‍ए।

rakhshanda said...

bahut sundar...

rakhshanda said...

आपको ईद और नवरात्रि की बहुत बहुत मुबारकबाद

nisha said...

achchha to aapke jyeshtha bhrata se prerit hain aap
achchhi baat hai.....achchhi adton ko kisi se bhi seekh sakte hai....vaise yathartha ke dharatal par likhte hain aap.....vaastav mein